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________________ ११२ जैन रत्न विहीन मरुस्थलमें, सभी स्थानोंमें निश्चल भावसे, शीत, घाम और वर्षाकी बाधाओंकी कुछ परवाह न करते हुए प्रभुने ध्यान और कायोत्सर्गमें आपना समय बिताना प्रारम्भ किया। ___ चतुर्थ, अष्टम, दशम, मासिक, चतुर्मासिक, अष्टमासिक, आदि उग्र तप सभी प्रकारके अभिग्रहों सहित, करते हुए भगवानने बारह वर्ष व्यतीत किये। बारह वर्षके बाद भगवान पुनः सहसाम्रवन नामक उद्यानमें आकर सप्तच्छद वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग ध्यानमें निमग्न हुए । ' अप्रमत्तसंयत' नामके सातवें गुणस्थानसे प्रभु क्रमशः 'क्षीणमोह ' नामके गुणस्थानके अन्तमें पहुँचे । वहाँ पहुँचते ही उनके सभी घाति कर्म नष्ट हो गये । पौष शुक्ला एकादशीके दिन चन्द्र जब रोहिणी नक्षत्रमें आया तब प्रभुको 'केवलज्ञाना उत्पन्न हो गया। __ इस ज्ञानके होते ही तीन लोकमें स्थित तीन कालके सभी भावोंको प्रभु प्रत्यक्ष देखने लगे । सौधर्मेन्द्रका आसन काँपा। उसने प्रभुको ज्ञान हुआ जान सिंहासनसे उतरकर विनती की। फिर वह अपने देवों सहित सहसाम्रवनमें आया । अन्यान्य इन्द्रादि देव भी आये। सबने मिलकर समवसरणकी रचना की। भगवान चैत्यवृक्षकी प्रदक्षिणा दे, 'तीर्थायनमः' इस वाक्यसे तीर्थको नमस्कार कर मध्यके सिंहासनपर पूर्व दिशामें मुख करके बैठे। व्यंतर देवोंने तीनों ओर प्रभुके प्रतिबिंब रक्खे । वे भी असली स्वरूपके समान दिखने लगे । बारह पर्षदाएँ अपने २ स्थानपर बैठ गईं । सगरको भी ये समाचार मिले । वह बड़ी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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