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जैन-रत्न
जैन और जैनेतरदृष्टिसे आत्मा । ___ आध्यात्मिकविषयमें आत्माका स्वरूप जानना जरूरी है । भिन्न भिन्न दृष्टि-बिन्दुद्वारा आत्मस्वरूपका विचार करनेसे उसके संबंधमें होनेवाली शंकाएँ मिट जाती हैं और आत्माकी सच्ची पहिचान होती है । आत्माकी जानकारी होने पर उसपर अध्यात्मकी नींव डाली जा सकती है । यद्यपि यह विषय बहुत ही विस्तृत है, तथापि कुछ बातोंका यहाँ परिचय कराना आवश्यक समझते हैं।
प्रथम यह है कि कई दर्शनकार-नैयायिक, वैशेषिक और सांख्यआत्माको शरीरमात्रहीमें स्थित न मानकर व्यापक मानते हैं । अर्थात् वे कहते हैं कि प्रत्येक शरीरका प्रत्येक आत्मा संपूर्ण जगत्में व्याप्त है। वे यह भी कहते हैं कि ज्ञान आत्माका असली स्वरूप नहीं है, यह शरीर, मन और इन्द्रियोंके संबंधसे उत्पन्न होनेवाला आत्माका अवास्तविक धर्म है। ___ जैनदर्शनकार इन दोनों सिद्धान्तोंके प्रतिकूल हैं। वे एक आत्माको एक ही शरीरमें व्याप्त मानते हैं । वे कहते हैं, कि ज्ञान, इच्छा आदि गुणोंका अनुमव सिर्फ शरीरहीमें होता है, इसलिए इन गुणोंका मालिक आत्मा भी मात्र उस शरीरमें ही होना, मानना घटित होता है।
१-जिस वस्तु के गुण जहाँ दिखते हों वह वस्तु वहीं होनी चाहिए । जहाँ घटका स्वरूप दिखाई देता हो, वहीं घटका होना भी घटित हो सकता है । जिस भूमिभागपर घटका स्वरूप दिखता हो उस भागके सिवा अन्यत्र उस रूपवाला घट होना कैसे संभवित हो सकता है ? इसी बातको हेमचंद्राचार्य निम्न प्रकारसे प्रकट करते है:___" यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवसिषतिपक्षमेतत् ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com