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________________ जैन-दर्शन दूसरी बातके लिए जैनदर्शनकी मान्यता है कि, ज्ञान आत्माका चास्तविक धर्म है; आत्माका असली स्वरूप है, या यह कहो कि आत्मा ज्ञानमय ही है । इसीलिए जैनदर्शन यह भी मानता है कि इन्द्रियों और मनका संबंध छूटने पर भी; मुक्तावस्थामें भी; आत्मा अनन्तज्ञानशाली रहता है । ज्ञानको आत्माका असली धर्म नहीं माननेवाले, आत्माको मुक्तावस्थामें भी ज्ञानप्रकाशमय नहीं मान सकते हैं। आत्माके संबंधमें अन्य दर्शनकारोंकी अपेक्षा जैनदर्शनकारोंके मन्तव्य भिन्न हैं। वे इस प्रकार हैं। "चैतन्यस्वरूपः, परिणामी, कर्ता, साक्षाभोक्ता, देहपरिमाणः, प्रतिक्षेत्रं भिन्नः, पौद्गलिकादृष्टवांश्चायम्"। __इस न्यायसे सिद्ध होता है कि आत्माके जज्बे-लागणीयाँ, ( Feeling ) इच्छा आदि गुणोंका अनुभव शरीरहीमें होता है इसलिए उन गुणोंका स्वामी आत्मा भी शरीरहीमें होना चाहिए। x ज्ञानकी भाँति सुख भी वास्तविक धर्म है । हम जानते हैं कि सूर्य बहुत प्रकाशमान् है; परन्तु जब वह बादलोंमें छिपता है तब उसका प्रकाश फीका दिखाई देता है । और वही फीका प्रकाश अनेक पर्देवाले मकानमें और भी विशेष फीका मालूम होता है। मगर इससे क्या कोई यह कह सकता है कि सूर्य प्रखर प्रकाशबाला नहीं है । इसी प्रकार आत्माके ज्ञान-प्रकाशका या वास्तविक आनंदका भी, यदि शरीर, इन्द्रिय और मनके बंधनसे या कर्मावरणसे पूर्णतया अनुभव न हो, मलिन अनुभव हो; विकारयुक्त अनुभव हो तो इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि ज्ञान और आनंद आत्माके असली स्वरूप नहीं हैं। १--वादि देवसूरिकृत 'प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार' नामक न्यायसूत्रके सातवें परिच्छेदका यह ५६ वा सूत्र है। यह मूलसूत्र ग्रंथ कलकत्ता युनिवरसिटीके एम्. ए. के. कोर्समें है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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