SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 549
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-रत्न rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr ~~~ ५१६ इस सूत्रमें आत्माको पहिला विशेषण । चैतन्यस्वरूपवाला दिया गया है । अर्थात् ज्ञान यह आत्माका असली स्वरूप है। इससे उक्त कथनानुसार, नैयायिक आदि भिन्न मन्तव्यवाले हैं। ' परिणामी ' ( आत्मा नवीन नवीन योनियोंमें; भिन्न भिन्न योनियों में भ्रमण करता है इसलिए परिणाम-स्वभाववाला कहलाता है। ) ' कर्ता' और साक्षाद् । भोक्ता ' इन तीन विशेषणोंसे, आत्माको कमलपत्रकी तरह सर्वथा निर्लेप, परिणामरहित और क्रियारहित माननेवाला सांख्यमत भिन्न पड़ता है । नैयायिक आदि भी आत्माको परिणामी नहीं मानते हैं । ' मात्र शरीरहीमें व्याप्त' यह, ' देहपरिमाण ' विशेषणका अर्थ होता है । इस विशेषणको वैशेषिक, नैयायिक और सांख्य नहीं मानते हैं, क्योंकि वे आत्माको सर्वत्र व्यापक मानते हैं। 'प्रत्येक शरीरमें आत्मा जुदा होता है। यह प्रतिक्षेत्रं भिन्न ' विशेषणका अर्थ है । इस विशेषणको अद्वैतवादी-ब्रह्मवादी नहीं मानते हैं; क्योंकि वे सर्वत्र एक ही आत्मा मानते हैं । और अन्तिम विशेषणसे पौगलिकरूप अदृष्टवाला आत्मा बताते हुए, कर्मको अर्थात् धर्म-अधर्मको आत्माका विशेष गुण माननेवाले नैयायिक-वैशेषिक, और कर्मको एक प्रकारके परमाणुओंका समूहरूप नहीं माननेवाले वेदान्ती वगैरह वादी जुदा पड़ते हैं। 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या । इस सूत्रकी उद्घोषणा करनेवाले इस सूत्रका अर्थ चाहे कैसा ही करें; परन्तु इसका वास्तविक अर्थ तो यह होता है कि:-" संसारमें जितने भी दृश्य पदार्थ हैं, वे सत्र विनाशी हैं, इसलिए उनको मिथ्या समझना चाहिए । आराधन करने १-क्षेत्र-शरीर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy