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जैन-दर्शन
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मात्र हैं-बहुत छोटे हैं। उनके बादके तीन · गुणवत' कहलाते हैं । कारण यह है कि ये तीन व्रत अणुव्रतोंका गुण यानी उपकार करनेवाले हैं; उनको पुष्ट करनेवाले हैं । अन्तिम चार “ शिक्षाव्रत ' कहलाते हैं । शिक्षाव्रत शब्दका अर्थ है-विशेष धार्मिक कार्य करनेका अभ्यास डालना।
बारहों व्रत ग्रहण करनेका सामर्थ्य न होने पर शक्तिके अनुसार भी व्रत ग्रहण किये जा सकते हैं । इन व्रतोंका मूल सम्यक्त्व है। सम्यक्त्वप्राप्तिके विना गृहस्थधर्मका संपादन नहीं हो सकता है ।
सम्यक्त्व।
'सम्यक्त्व ' शब्दका सामान्य अर्थ होता है-अच्छापन, या निर्मलता । मगर जैनशास्त्रकारोंने इसका अर्थ विशेष रूपसे किया है। " तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।।
(तत्त्वार्थाधिगम २ रा सूत्र) भावार्थ-जीवाजीवादि तत्त्वोंको यथार्थ स्वरूपमें बुद्धिपूर्वक अटल विश्वास करना सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्त्वका नामान्तर है। गृहस्थोके लिए सम्यक्त्वका विशेष लक्षण भी बताया गया है। जैसे
" या देवे देवताबुद्धिगुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते" ॥ ( यागशास्त्र )
भावार्थ-देव पर देवबुद्धि, गुरु पर गुरुबुद्धि और धर्म पर धर्मबुद्धि-शुद्ध प्रकारकी बुद्धि रखनेका नाम सम्यक्त्व है । यहाँ हम थोडासा देव, गुरु और धर्म तत्त्वका भी पाठकोंको परिचय करा देना चाहते हैं।
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