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जैन-रत्न
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सकोगे ।" देवताओंकी यह वाणी सुनकर सबने उनकी आधीनता स्वीकार कर ली।
फिर अनन्तवीर्य कमलश्री और अपराजितके साथ शुभापुरीको रवाना हुए। वे मार्गमें मेरु पर्वतपरसे गुजरे। विद्याधरोंने प्रार्थना क:-" पर्वतपरके जैनमंदिरोंके दर्शन करते जाइए।" तदनुसार अनन्तवीर्यने सबके साथ मेरु पर्वतपर जैन चैत्योंके दर्शन किये । वहाँ पर उन्हें कीर्तिधर नामक मुनिके भी दर्शन हुए। उसी समय उन मुनिके घाति कर्म नाश हुए थे और उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था । देवता उनको वन्दना करनेके. निमित्त वहाँ आये हुए थे। अनन्तवीर्य आदि बहुत खुश हुए। वे मुनीके प्रदक्षिणा देकर पर्षदामें बैठे और देशना सुनने लगे। देशना खतम होनेके बाद कनकश्रीने मुनिसे प्रश्न कियाः-" भगवन ! मेरे पिताका वध और मेरे बान्धवोंसे विरह होनेका क्या कारण है ?"
मुनि बोले:-"धातकी खण्ड नामक द्वीपमें शंखपुर नामक एक समृद्धिशाली गाँव था। उसमें श्रीदत्तानामकी एक गरीब स्त्री रहती थी। वह दूसरोंके यहाँदासत्ति कर अपना निर्वाह किया करती थी।
एक समय श्रीदत्ता भ्रमण करती हुई देवगिरिपर चढ़ी। वहाँपर उसे सत्ययशा नामक महामुनिके दर्शन हुए । श्रीदत्ताने बंदना की और मुनिने 'धर्मलाभ ' दिया । श्रीदत्ता बोली:" भगवन् ! मैं अपने पूर्व जन्मके दुष्कर्मोंसे इस जन्ममें बड़ी दुःखी हूँ । इसलिये कोई ऐसा माग मुझे बताइए जिससे मैं इस हालतसे छूट जाऊँ।" दयालु मुनिने उस दुःखी अबलाको धर्म
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