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१६ श्री शांतिनाथ-चरित
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था। दमितारीकी सेना कटते कटते हतोत्साह हो गई । उसी समय वासुदेव अनन्तवीर्यने अपने पांचजन्य शंखकी नादसे शत्रुसेनाको बिल्कुल ही हतवीर्य कर दिया।
दमितारी अपनी फौजकी यह हालत देखकर रथपर चढ़कर रणांगणमें आया । उसने अनंतवीर्यको ललकारा । अनन्तवीर्य भी उससे कब हटनेवाले थे । दोनों वीर अपने २ दिव्य शस्त्रोद्वारा युद्ध करने लगे । बहुत देर तक इसी तरह लड़नेके बाद दमितारिने अपने चक्रका सहारा लिया और उसको चलानेके पहले अनंतवीर्यसे कहा:-" रे दुर्मति ! अगर जीवन चाहता है तो अब भी कनकश्रीको मुझे सौंप और मेरी आधीनता स्वीकार कर, वरना यह चक्र तेरा प्राण लिए बिना न रहेगा।" __ ये वचन सुनकर अनंतवीर्यने हँसकर उत्तर दिया:"मूर्ख ! तू किस घमंडमें भूला है? मैं तेरे चक्रको का,गा, तुझे मारूँगा और तेरी कन्याको लेकर विजय दुंदुभि बजता हुआ अपनी राजधानीमें जाऊँगा।" इतना सुनते ही दमितारीने वासुदेवपर अपना चक्र चला दिया। चक्र लगनेसे वासुदेव मूच्छित हो गया। अपराजितकी सेवा शुश्रूषासे वह वापिस होशमें आया। अब अनंतवीर्यने भी अपने चक्रका प्रयोग किया। चक्रने अपनी करतूत बतलाई। उसने दमितारीका शिरच्छेद कर दिया।
उसी समय आकाशमें आकर देवताओंने विद्याधरोंको अनन्तवीर्यका प्रभुत्व स्वीकार करनेकी सम्मति दी और कहा:" हे विद्याधरो ! यह अनंतवीर्य विष्णु ( वासुदेव ) है और अपराजित उनका भाई बलभद्र है । इनसे तुम कभी जीत ने
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