SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० जैन-रत्न ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~mwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmram तो शीघ्र ही शुभा नगरीको चली चलो।"" मैं तैयार हूँ।" कहकर कनकश्रीने अपनी सम्मति दी । “ तब चलो।" कहकर अनंतवीर्य राजसभाकी ओर बढ़ा। कनकभी भी उसके पीछे चली । अपराजित भी असली रूप धर उनके पीछे हो लिया। ये तीनों राजसभामें पहुँचे । राजा और दर्बारी सभी उन्हें आश्चर्यके साथ देखने लगे। अनंतवीर्य धनगंभीर वाणीमें बोला:-“हे दमितारी और उसके सुभटो ! सुनो ! हम अनंतवीर्य और अजितारी राजकन्या कनकधीको ले जा रहे हैं। तुमने हमारी दासियाँ चाही थीं। वे तुम्हें न मिली; मगर आज हम तुम्हारी राजकन्या ले जा रहे हैं । जिनमें साहस हो वे आवें और हमारा मार्ग रोकें । तुम्हें हमने सूचना दे दी है। पीछेसे यह न कहना कि हम राजकन्याको चुराकर ले गये।" अनंतवीर्य कनकधीको उठाकर वहाँसे चल निकला। अपराजितने उसका अनुसरण किया। दमितारीके क्रोधकी सीमा न रही। उसने तत्काल ही अपने सुभटोंको आज्ञा दी:-"वीरो! जाओ और उन दृष्टोंको शीघ्र ही पकड़कर मेरे सामने लाओ!" __ आज्ञाकी देर थी। 'मारो' 'पकड़ो' की आवाजसे कानोंके पर्दे फटने लगे ।कोलाहलपूर्ण एक विशाल सेनाने टिड्डीदलकी तरह अनन्तवीर्यका पीछा किया। अनन्तवीर्यने अपने विद्याबलसे सेना बना ली । वह दमितारिकी सेनासे दुगनी थी। अब घोर संग्राम होने लगा । रणांगणमें वीर योद्धा अपनी रणविद्याका परिचय देने लगे । मार काटके सिवाय वहाँ और . कुछ नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy