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________________ १६ श्री शांतिनार्थ-चरित १८५ rrrrrrrr वाला है । इसलिये मुझे शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण करनेकी आज्ञा प्रदान कीजिए।" अपनी प्रियाकी यह प्रार्थना सुनकर अनंतवीर्यको बड़ा विस्मय हुआ। तो भी उसने कहाः-" प्रिये ! अपने नगरमें चलकर स्वयंप्रभ मुनिसे दीक्षा लेना।" कनकश्रीने पतिकी बात मान ली।। __ सबके साथ अनंतवीर्य अपनी राजधानीमें पहुँचा। वहाँ जाकर क्या देखता है कि, दमितारीकी पहले भेजी हुई सेनासे घिरा हुआ उसका पुत्र अनंतसेन बड़ी वीरतासे लड़ रहा है। इस तरह अपने भतीजेको शत्रुके चंगुलमें देखकर अपराजितको बड़ा क्रोध आया। उसने क्षणभरमें सारी सेनाको मार भगाया। फिर वासुदेवने सबके साथ नगरमें प्रवेश किया। बड़े समारोहके साथ अनंतवीर्यका अर्द्ध-चक्रीपनका अभिषेक हुआ। ___एक समय विहार करते हुए स्वयंप्रभ भगवान स्वेच्छासे शुभा नगरीके बाहर उद्यानमें आकर ठहरे । सब लोग दर्शनोंको गये । कनकश्रीने इस समय अपने पतिकी आज्ञासे दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी दिनसे वह तप करने लगी और उसने क्रमसे एकावली, मुक्तावली, कनकावली, भद्र, महाभद्र और सर्वतोभद्र इत्यादि तप किये । अन्त में वे केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष गईं। ___ वासुदेव अनंतवीर्य अपने भाई अपराजितके साथ राज्यलक्ष्मी भोगने लगे। अपराजितके विरता नामकी एक स्त्री थी। उससे सुमति नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई । वह बाल्यावस्थाहीसे बड़ी धर्मनिष्ठा थी । वह श्रावकके बारह व्रत अखंड करती थी। एक दिन वह उपवासके उपरान्त पारणा करने बैठने ही वाली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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