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जैन-रत्न
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थी कि उसे द्वारकी तरफसे एक मुनि आते हुए दिखे । उसने झट उठते ही, अपने ही थालके अन्नसे मुनिको प्रति लाभित किया । उसी वक्त वहाँ वसुधारादि पाँच दिव्य प्रकट हुए । 'त्यागी महात्माओं को दिया हुआ दान अनंतगुणा फलदायी होता है । ' मुनि वहाँसे चले गये । उसके बाद रत्नदृष्टिकी खबर सुनकर बलभद्र और वासुदेव सुमतिके पास आये । इस घटना से सबको विस्मय हुआ । बालिकाके अलौकिक कार्यसे प्रसन्न होकर दोनों भाइयोंने सोचा कि इस बालिकाके लिए कौनसा योग्य वर होना चाहिए । आखिर उन्होंने महानन्द नामक मंत्री से सलाह करके स्वयंवर करनेका निश्चय किया ।
अब स्वयंवरकी तैयारियाँ होने लगीं । एक विशाल मण्डपकी रचना हुई । सब राजाओं और विद्याधरोंके यहाँ निमन्त्रण भेजे गये ।
निश्चित दिनको बड़े २ राजा महाराजा एकत्रित हुए । सुमति भी सोलह शृंगार करके अपनी सखी सहेलियोंके साथ हाथमें वरमाला लिए हुए मण्डपमें उपस्थित हुई । उसने एक बार सबकी तरफ देखा । स्वयंवरमंडप में उपस्थित सुमतिके पाणिप्रार्थी इस रूपकी अलौकिक मूर्तिको देखकर आश्चर्यमें डूब गये ।
उसी समय मण्डपके मध्य में स्वर्णसिंहासन पर विराजमान एक देवी प्रकट हुई । देवीने अपनी दाहिनी भुजा उठाकर सुमतिको कहा:-- “ मुग्धे धनश्री ! विचार कर ! अपने
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