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________________ जैन - रत्न राज्यसुख भोगने के लिये मैं यहाँ न रहूँगा । अतः पूज्यवर ! मुझे साथ लीजिये !" १०८ जिसके प्रत्येक शब्दसे प्रभु-विछोहकी आंतरिक दुःसह वेदना प्रकट हो रही थी, जिसका हृदय इस भावनासे टूक ट्रक हो रहा था कि, भगवान मुझे छोड़कर चले जायँगे; उस मोहमुग्ध सगर कुमारको प्रभुने अपनी स्वाभाविक अमृतसम वाणीमें कहा :- “ बंधु ! मोहाधीन होकर मेरे साथ आनेकी भावना अनुचित है । मोहं आखिर दुःखदायी है । हाँ दीक्षा लेनेकी तुम्हारी भावना श्रेष्ठ है । संसार सागर से पार उतरने का यही एक साधन है । तो भी अभी तुम्हारा समय नहीं आया है। अभी तुम्हारे भोगावली कर्म अवशेष हैं । उन्हें भोगे बिना तुम दीक्षा नहीं ले सकते । अतः हे युवराज ! क्रमागत अपने इस राज्यभारको ग्रहण करो, प्रजाका पालन करो, न्याय से शासन करो और मुझे संयम लेनेकी अनुमति दो। " सगरकुमार स्तब्ध होकर प्रभुके मुखकी ओर देखने लगा । क्या करता और क्या नहीं ? उसके हृदयकी अजब हालत थी । एक ओर स्वामी- विछोह की वेदना थी और दूसरी तरफ स्वामीकी आज्ञा भंग होनेका खयाल था । वह दोमेंसे एक भी करना नहीं चाहता था । न विछोह - वेदना सहने की इच्छा थी और न आज्ञा मोडनेहीकी । मगर दोनों परस्पर विरोधी बातें एक साथ कैसे होतीं ? दिन रातका मेल कैसे संभव था ? आखिर कुमारने विछोह - वेदनाको, आज्ञा मोड़नेसे ज्यादा अच्छा समझा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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