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________________ २८० जैन-रत्न लेना चाहिए । फिर पार्यकुमार तो सामान्य शत्रु नहीं हैं, ये तो देवाधिदेव हैं । सारी दुनियाके पूज्य हैं । इनसे संधी कर. नेमें, इनकी सेवा करनेमें इस भव और पर भव दोनों भवोंमें कल्याण है ।" राजा यवनने मंत्रीकी बात मानकर कुशस्थलका घेरा उठानेका हुक्म दिया। फिर मंत्रीसहित वह पार्श्वकुमारकी सेवामें हाजिर हुआ। दयालु कुमारने उसे अभय देकर विदा किया। घेरा उठ जानेपर कुशस्थलीके निवासियोंने शांतिका श्वास लिया । शहरके हजारों नरनारी अपने रक्षकके दर्शनार्थ उलट पड़े। राजा प्रसेनजित भी अनेक तरहकी भेटें लेकर पार्यकुमारकी सेवामें हाजिर हआ और विनती की:-"आप मेरी कन्याको ग्रहण कर मुझे उपकृत कीजिए।" पार्श्वकुमार बोले-" मैं पिताजीकी आज्ञासे कुशस्थलीकी रक्षा करने आया था। ब्याह करने यहाँ नहीं आया। इसलिए महाराज प्रसेनजित मैं आपका अनुरोध स्वीकारनेमें असमर्थ हूँ।" फिर पार्श्वकुमार अपनी फौजके साथ बनारस लौट गये । प्रसेनजित भी अपनी कन्या प्रभावतीको लेकर बनारस गया। महाराज अश्वसेनने पार्श्वकुमारका ब्याह प्रभावतीके साथ कर दिया । पतिपत्नी आनंदसे दिन बिताने लगे। ___ एक दिन पार्थकुमार अपने झरोखेमें बैठे हुए थे उस समय उन्होंने देखाकि, लोग फूलों भरी छाबें और मिठाई भरी थालियाँ अपने सिरोंपर रक्खे चले जा रहे हैं । पूछने पर उन्हें मालूम हुआ कि शहरके बाहर कोई कठ नामका तपस्वी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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