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________________ ३४ जैन-रत्न mmmmmmm १४-एक योजनतक उनके वचन समानरूपसे १५-सूर्यकी अपेक्षा बारह गुना अधिक उनके भामडंलका तेज होता है। १६-आकाशमें धर्मचक्र होता है। १७-बारह जोड़ी (चौबीस ) चंवर बगैर दुलाये दुलते हैं। १८-पादपीठ सहित स्फटिक रत्नका उज्ज्वल सिंहासन होता है। १९-प्रत्येक दिशामें तीन तीन छत्र होते हैं । २०-रत्नमय धर्मध्वज होता है। इसको इन्द्र-ध्वजा भी कहते हैं। २१-नौ स्वर्ण कमलपर चलते हैं (दो पर पैर रखते हैं, सात __ पीछ रहते हैं, जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं वैसे ही वैसे देवता पिछले कमल उठाकर आगे रखते जाते हैं। ) २२-मणिका, स्वर्णका और चाँदीका इस तरह तीन गढ़ होते हैं। २३-चार मुंहसे देशना-धर्मोपदेश-देते हैं । (पूर्व दिशामें भगवान बैठते हैं और शेष तीन दिशाओंमें व्यंतर देव तीन प्रतिबिंब रखते हैं।) २४-उनके शरीरप्रमाणसे बारह गुना अशोक वृक्ष होता है। वह छत्र, घंटा और पताका आदिसे युक्त होता है । २५-काँटे अधोमुख-उल्टे हो जाते हैं। २६-चलते समय वृक्ष भी झुककर प्रणाम करते हैं। २७-चलते समय आकाशमें दुंदुभि बजते हैं। २८-योजन प्रमाणमें अनुकूल वायु होता है । २९-मोर आदि शुभ पक्षी प्रदक्षिणा देते फिरते हैं। ३०-सुगंधित जलकी दृष्टि होती है। हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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