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________________ ३७२ जैन-रत्न २-जैसे शंख रंगसे नहीं रँगा जाता वैसे ही प्रभु भी किसी दुनियवी रंगसे न रँगे गये । वे निरंजन रहे । ३-वे सभी स्थानोंमें उचित रूपसे अस्खलित विहार करते थे और संयममें अस्खलित वर्तते थे इसलिए वे जीवकी तरह अस्खलित गतिवाले थे। ४-वे देश, गाँव, कुल आदि किसीके भी आधारकी इच्छा नहीं रखते थे इसलिए वे आकाशकी तरह आधारहीन निरालंबी थे। ५-किसी भी एक जगहपर नहीं रहनेसे वे वायुकी तरह बंधन-हीन थे। ६-कलुषता- मनमें किसी तरहकी मलिनता-न रखनेवाले होनेसे वे शरद् ऋतुके-जलकी तरह निर्मल हृदयी थे। __७-सगे संबंधियोंका या कर्मका मोहजल उनपर नहीं ठहर सकता था इसलिए वे संसार-सरोवरमें कमलके समान थे। ८-कछुआ जैसे अपने अंगोंको छिपाकर रखता है, वैसे ही उन्होंने इन्द्रियोंको छुपाकर रखा था, इसलिए वे इन्द्रियगोप्ता थे। ___९-गेंडेके जैसे एक ही सींग होता है वैसे ही रागद्वेषहीन होनेसे वे गेंडेके सींगकी तरह एकाकी थे । १०-परिग्रह रहित और अनियत निवास होनेसे वे पक्षीकी तरह स्वतंत्र थे। . ११- थोड़ासा भी प्रमाद नहीं करनेवाले भारंड पक्षीकी तरह वे अप्रमादी ये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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