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________________ २९२ जैन-रत्न जिसके दादा पहले तीर्थकर हैं और जो खुद पहला वासुदेव, चोबीसवाँ तीर्थकर व विदेहक्षेत्रमें चक्रवर्ती होगा।" इस तरह कुलका गर्व करनेसे उसने नीच गोत्र बाँधा। ___ भगवान मोक्षमें गये उसके बाद भी वह त्रिदंडीके वेशमें रहता था और शुद्ध धमका ही उपदेश करता था। एक बार बीमार हुआ; परन्तु उसे संयमहीन समझकर साधुओंने उसकी सेवा शुश्रूषा न की । इससे मरीचिके मनमें क्षोभ हुआ और सोचने लगा,-ये साधु लोग बड़े ही स्वार्थी, निर्दय और दाक्षिण्यहीन हैं कि बीमारीमें भी मेरी शुश्रूषा नहीं करते । यह सच है कि, मैंने संयम छोड़ा है, परन्तु धर्म तो नहीं छोड़ा ? मैंने विनयका तो त्याग नहीं किया ? इनको क्या लोकव्यवहारका भी ज्ञान नहीं है ? फिर सोचा,—मैं क्यों साधुओंको बुरा समझू ? ये लोग जब अपने शरीरकी भी परवाह नहीं करते तो मुझ असंयमीकी परवाह न की इसमें कौनसी बुराई हुई ? फिर सोचा,-मगर भविष्यके लिए तो मुझे इसका उपाय करना ही चाहिए। मैं अब रोगमुक्त होनेके बाद कुछ शिष्य बनाऊँगा। ___ मरीचि जब अच्छा हो गया तब उसके पास एक कपिल नामका पुरुष धर्मोपदेश सुनने आया । मरीचिने उसे अपना शिष्य बनाया और तभीसे त्रिदंडी धर्मकी हमेशाके लिए नींव पड़ गई । इस मिथ्याधर्मकी नींव डालनेसे मरीचिके जीवने कोटाकोटि सागरोपम प्रमाणका संसार उर्पाजन किया। - अपने मिथ्या धर्मोपदेशकी आलोचना किये बगैर मरकर मरीचिका जीव ब्रह्मलोकमें देवता हुआ। कपिलने. अपने मतका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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