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जैन-रत्न
चाहिए । अज्ञानको हटानेका सबसे अच्छा उपाय है-आत्मस्वरूपको जानना । इसलिए मनुष्यका सबसे पहिला कर्तव्य, यथाबुद्धि, यथाशक्ति आत्मस्वरूपका परिचय करना है।
सम्यक् चारित्र।
तत्त्वस्वरूपको जाननेकां फल पापकर्मसे हटना है। इसीको सम्यक चारित्र कहते हैं । 'सम्यक् चारित्र' शब्दका वास्तविक अर्थ है अपने जीवनको पापके संयोगसे दूर रखकर निर्मल बनाना । मनुष्य पापके संयोगसे कैसे बच सकता है ! इसके लिए शास्त्रोंमें नियम बनाये गये हैं । उनको आचरणमें लाना पापसंयोगसे बचनेका बहुत ही सीधा उपाय है। सामान्यतः चारित्र दो भागोंमें विभक्त किया गया है । एक है, गृहस्थोंका चारित्र और दूसरा है, माधुओंका चारित्र । पहिला — गृहस्थधर्म' और दूसरा · साधुधर्म' के नामसे पहिचाना जाता है।
जैनशास्त्रकारोंने साधुधर्म और गृहस्थधर्मके लिए बहुत कुछ लिखा है।
साधुधर्म। ___“सानोति स्वपरहितकार्याणि इति साधुः" अर्थात् जो निजको और दूसरों को लाभ पहुँचानेवाले कार्य करता है, वह साधु है । संसारके भोगोंको-कंचन, कामिनी आदिको छोड़, कुटुम्बपरिवारके नातेको तोड़, घरबारको जलांजलि दे, आत्मकल्याणकी उच्च कोटि पर आरूढ होनेकी पवित्र आकांक्षा रख, असंगवत ग्रहण करनेका नाम साधुधर्म है । साधुके व्यवसायका मुख्य विषय होता है-राग-द्वेषकी वृत्तियोंको दबाना । किसी जीवको मारने या सतानेमे
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