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जैन-दर्शन
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दूर रहना, झूठ नहीं बोलना, किसी चीजको, मालिककी आज्ञा विना न उठाना, मैथुनसे दूर रहना और परिग्रह नहीं रखना, 'ये साधुओंके पाँच महाव्रत हैं। अपने मनकी, अपने वचनकी और अपने शरीरकी चंचलता पर अंकुश रखना साधुनीवनका अटल लक्षण है। साधुधर्म यह विश्वबन्धुताका व्रत है । इसका फल है,-जन्म, जरा,. मृत्यु, आधि, व्याधि, उपाधि आदि सब दुःखोंसे रहित स्थानकोमोक्षको पाना । यह साधुधर्म जितना उज्ज्वल और पवित्र है, उतना ही विकट भी है । साधुधर्मको वही आचरणमें लाता है, जिसको संसारके स्वरूपका वास्तविक ज्ञान होता है, जिसके हृदयमें तात्त्विक वैराग्यका प्रादुर्भाव होता है और जिसको मोक्ष प्राप्त करनेकी प्रबल आकांक्षा होती है। ___ जो साधुधर्मको नहीं पाल सकते हैं, उनको चाहिए कि, वे गृहस्थधर्मका पालन करें। इससे भी वे अपने जीवनको कृतार्थ बना सकते हैं। शास्त्रकार कहते हैं कि गृहस्थधर्ममें चलनेके पहिले मनुष्यको अमुक गुण प्राप्त कर लेने चाहिएँ। अमुक बातोंका अभ्याप्त कर लेना चाहिए । सबसे पहिले न्यायपूर्वक धन कमाने; कठोरसे कठोर स्थितिमें भी अन्याय नहीं करनेका गुण प्राप्त करना चाहिए । इसके सिवा महात्माओंकी संगति, तत्वश्रवणकी उत्कंठा और इन्द्रियोंकी उच्छंखलतापर अधिकार करना आदि गुण प्राप्त कर लेना भी गृहस्थधर्मके. मार्ग पर चलनेवाले मनुष्यके लिए आवश्यक है।
१ प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, भैथुनविरमण और परिग्रहविरमण, ये पाँच व्रतोंके क्रमशः जैनशास्त्रानुसार पारिभाषिक (technical) शब्द हैं।
२-जैनशास्त्रोंकी परिभाषामें इसको मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति कहते हैं।
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