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जैन - रत्न
पदार्थ भेटमें नहीं लिया । हमने कितना अनुनय विनय किया, कितनी आर्त प्रार्थनाएँ कीं तो भी प्रभु हमारे पर दयालु नहीं हुए, परन्तु तुम्हारी बात उन्होंने सहसा मान ली । तुम्हारी दी हुई भेट प्रभुने तत्काल ही स्वीकार कर ली । "
श्रेयांस कुमारने उत्तर दिया:- “ तुम प्रभुके ऊपर दोष न लगाओ | वे पहिलेकी तरह अब राजा नहीं हैं । वे इस समय संसार - विरक्त, सावद्यत्यागी यति हैं । तुम्हारी भेट की हुई चीजें संसार भोगी ले सकता है, यति नहीं । सजीव फलादि भी प्रभु के लिए अग्राह्य हैं । इन्हें तो हिंसक ग्रहण कर सकता है । प्रभु तो केवल ४२ दोषरहित, एषणीय, कल्पनीय और मासुक अन्न ही ग्रहण कर सकते हैं "
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उन्होंने कहा :- " युवराज ! आजतक प्रभुने कभी यह बात नहीं कही थी । तुमने कैसे जानी १ "
श्रेयांस कुमार बोले :- "मुझे भगवान के दर्शन करनेसे जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ । सेवककी भाँति मैं आठ भवसे प्रभुके साथ साथ स्वर्ग और मृत्युलोक सभी स्थानोंमें हूँ | इस भवसे तीन भव पहिले भगवान विदेह भूमिमें उत्पन्न हुए थे । ये चक्र। वर्ती थे और मैं इनका सारथि था। इनका नाम वज्रनाभ था। उस समय इनके पिता वज्रसेन तीर्थकर हुए थे । इन्होंने बहुत काल तक भोग भोगकर उनसे दीक्षा ली। मैंने भी इन्हीं के साथ दीक्षा ले ली। जब हमने दीक्षा की थी तब भगवान वज्रसेनने कहा था कि, वज्रनाभका जीव भरतखंडमें प्रथम तीर्थंकर होगा । उस समय साधुओकों कैसा आहार दिया जाता है सो मैंने
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