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________________ जैन-दर्शन ४८९ जाती है, और चैतन्य-विकासरूपी महान् फलकी प्राप्ति होती है। इस प्रकारकी फलप्राप्तिमें ईश्वरका प्रसन्न होना, मानना, जैनशास्त्रोंको अस्वीकार है। वेश्याकी संगति करनेवाला मनुष्य दुर्गतिका भाजन बनता है; यह बात अक्षरशः सत्य है। मगर विचारना यह है कि इस दुर्गतिका देनेवाला है कौन ? वेश्याको दुर्गतिदाता मानना भ्रान्तिपूर्ण है। क्यों कि प्रथम तो वेश्या यह जानती ही नहीं है कि दुर्गति क्या चीज है ? दूसरे यह है कि कोई किसीको दुर्गतिमें ले जानेका सामर्थ्य नहीं रखता है। इससे निर्भीकताके साथ यह कहा जा सकता है कि मनुष्यको दुर्गतिमें ले जानेवाली उसके हृदयकी मलिनता है। इससे यह सिद्धान्त स्थिर किया जा सकता है कि सुखदुःखके कारणभूत जो कर्म हैं उन काँका कारण हृदयकी शुभाशुभ वृत्तियाँ हैं; और इन वृत्तियोंको शुभ बनाने और उनके द्वारा सुख प्राप्त करनेका सर्वोत्कृष्ट साधन भगवद्-उपासना है। उसकी उपासनासे वृत्तियाँ शुभ बनती हैं और अन्तमें सारी वृत्तियोंका निरोध होकर अतीन्द्रिय परमानंद मिलता है। मोक्षमार्ग नव तत्त्वोंका संक्षिप्त वर्णन समाप्त हुआ । इससे पाठक भली प्रकार समझ गये होंगे कि जैन लोग आत्मा, पुण्य, पाप, परलोक, मोक्ष और ईश्वर इन सबको यथावत् मानते हैं । आस्तिकोंके आस्तिकत्वका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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