SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 523
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९० जैन-रत्न आधार, इन्हीं पुण्य, पाप, परलोक आदि परोक्ष तत्त्वोंका मानना है । केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही माननेसे तत्त्वज्ञानका मार्ग नहीं मिलता । ऐसा करनेसे आत्मजीवनकी भी स्थिति ठीक नहीं रहती। जो सिर्फ प्रत्यक्ष प्रमाणको मानते हैं उन्हें भी धुएँको देखकर अग्नि होनेका अनुमान करना ही पड़ता है । नहीं देखनेसे वस्तुका अभाव मानना न्यायसंगत नहीं । बहुतसी वस्तुएँ ऐसी हैं, कि जो अपने दृष्टिगत नहीं होती; परन्त उनका अस्तित्व है। तो क्या न दिखनेसे अस्तित्वका अभाव हो जायगा ? आकाशमें उड़ता हुआ पक्षी इतना ऊँचा चला गया कि वह दिखनेसे बंद हो गया; इससे क्या यह मान लिया जाय कि वह पक्षी है ही नहीं ? अपना ही अनुभव मानना और दूसरेके अनुभवको नहीं मानना अनुचित है। एक मनुष्य लंदन, पेरिस, न्यूयार्क, बर्लिन आदि नगर देखकर आया है, और वह उनकी शोभाका, वहाँके लोगोंके वैभवका यथावत् वर्णन कर रहा है, मगर सुननेवाला, प्रत्यक्ष प्रमाणके अभाव; स्वयंने उसका अनुभव नहीं किया इसलिए; यदि उस बातको नहीं मानेगा तो हँसीका पात्र होगा। इसी तरह यह बात भी है। यानी साधारण मनुष्योंकी अपेक्षा अपने महापुरुष, अनुभवज्ञानमें बहुत बड़े चढ़े थे। उनके सिद्धान्तोको, हम अनुभव नहीं कर सकते इसीलिए नहीं मानना अनुचित है। ____ मनुष्यको चाहिए कि वह पुण्य-पापकी जो लीलाएँ संसारमें हो रही हैं उनको भली प्रकार समझे, संसाररूपी महाविषधरसे सावधान बने और आत्माके ऊपर लगे हुए कर्मरूपी मलको दूर करनेके लिएचैतन्यको पूर्ण प्रकाशमें लानेके लिए कल्याणसंपन्न मार्गमें लगे । मनुष्य वास्तविक मार्ग पर चलता हुआ, चाहे चाल धीमी ही क्यों न अपने महापुरुष कर सकते इसापकी जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy