________________
जैन-दर्शन
४६३
भी भविष्यमें कभी जीवोंका अन्त न आवे इतने 'अनन्त' जीव समझने चाहिए। यह 'अनन्त' शब्दकी व्याख्या है । इसको देखनसे प्रस्तुत शंकाका समाधान हो जाता है। ___ सूक्ष्मातिसूक्ष्म कालको जैनशास्त्रोंमें 'समय' बताया है। यह इतना सूक्ष्म है कि, एक समयमें कितने सेकंड निकल जाते हैं, इसकी हमें कुछ भी खबर नहीं होती है । ऐसे, भूतकालके अनन्त समय, वर्तमानका एक समय और भविष्यके अनन्त समय, इन सबको जोड़ने पर जितनी जोड़ आती है, उससे भी अनन्त गुने अनन्त जीव हैं । इससे यह ज्ञात होता है कि, अनन्त भविष्यकालमें मी जीवराशिकी समाप्ति होनेवाली नहीं है । जितने दिन, महीने और बरस बीतते जाते हैं, उतने ही भविष्यकालमेंसे कम होते जाते हैं। यानी भविष्यकाल प्रतिक्षण कम होता रहता है तो भी भविष्यकालका कभी अंत नहीं होता है। कोई यह कल्पना भी नहीं कर मकता है कि, कभी भविष्यकालके दिन बीत जायँगे, कभी भविष्यकालके बरस परे हो जायँगे; कभी भविष्यकाल बाकी नहीं रहेगा। जब भविष्यकालहीका अन्त नहीं होता है, तब जीवोंका-जो भविष्यकालसे भी अनन्तानन्त है-कैसे अन्त हो सकता है ? कैसे संसार जीव-शून्य हो सकता है ? कैसे ऐसी कल्पना भी की जा सकती है ? कहनेका अभिप्राय यह है कि, जीव अनन्त हैं इसलिए, संसार कमी इनसे शून्य नहीं होगा।
जीवोंके विभाग।
सामान्यतया जीवोंके दो भेद किये जाते हैं-'संसारी' और 'सिद्ध'। जो जीव ससारमें भ्रमण कर रहे हैं, वे संसारी कहलाते हैं। 'संसार'
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com