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________________ २४२ जैन-रत्न आज हम कुश्ती करें । देखें कौन बली है ।" अरिष्टनेमिने विवेक किया:--" बंधु ! आप बड़े हैं, इसलिए हमेशा ही बली हैं" श्रीकृष्णने कहा:-"इसमें क्या हर्ज है ? थोड़ी देर खेल ही हो जायगा।" अरिष्टनेमि बोले:-" धूलमें लौटनेकी मेरी इच्छा नहीं है । मगर बलपरीक्षाका मैं दूसरा उपाय बताता हूँ। आप हाथ लंबा कीजिये । मैं उसे झुका हूँ। और मैं लंबा करूँ आप उसे झुकावें । जो हाथ न झुका सकेगा वही कम ताकतवाला समझा जायगा" श्रीकृष्णको यह बात पसंद आई। उन्होंने हाथ लंबा किया । अरिष्टनेमिने उनका हाथ इस तरह झुका दिया जैसे कोई बैंतकी पतली लकड़ीको झुका देता है।" फिर अरिष्टनेमिने अपना हाथ लंबा किया; परंतु श्रीकृष्ण उसे न झुका सके । वे सारे बलसे उसको झुकाने लगे पर वे इस तरह झूल गये जैसे कोई लोहेके डंडेपर झूलता हो । श्रीकृष्णका सबसे अधिक बलशाली होनेका खयाल जाता रहा । उन्होंने सोचा,-दुनियामें एकसे एक अधिक बलवान हमेशा जन्मता ही रहता है । फिर बोले,-" भाई । तुम्हें वर्धाई है ! तुम पर कुटुंब योग्य अभिमान कर सकता है।" ___ अरिष्टनेमि युवा हुए; परंतु यौवनका मद उनमें न था । जवानी आई मगर जवानीकी ऐयाश तबीअत उनके पास न थी। वे उदास, दुनियाके कामोंमें निरुत्साह, सुखसामग्रियोंसे बेसरोकार और एकांत सेवी थे । उनको अनेक बार राजकारोबारमें लगानेकी कोशिश की गई, मगर सब बेकार हुई । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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