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________________ ४८० जैन-रत्न आत्मा, तत्काल ही ऊर्ध्व गमन कर एक समयमात्रमें लोकके अग्रभागमें जा स्थित होता है । आत्माकी इसी अवस्थाका नाम मोक्ष है। माक्ष नौ तत्त्वों से नवाँ तत्त्व मोक्ष है । इसका लक्षण है" कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" अथवा " परमानन्दो मुक्तिः" अर्थात् सारे कर्मोंका क्षय, या कर्मोंके क्षय होनेसे उत्पन्न होनेवाला आनंद । आत्माका स्वभाव है कि, वह सारे कर्मोंका क्षय हो जाने पर ऊर्ध्व गमन करता है । इसके लिए पहिले तँबीका उदाहरण दिया जा चुका है । आत्मा, ऊर्ध्वगमन करता हुआ लोकके अग्रभागमें जाकर रुक जाता है। फिर वह वहाँसे आगे नहीं जा सकता है। क्यों नहीं जा सकता है ? इसका कारण भी पहिले कहा जा चुका है, कि गमन करनेमें सहायता देनेवाला धर्मद्रव्य लोकके अग्रभागके आगे नहीं है। __ उक्त मुक्तावस्थामें सारे कर्मोंकी उपाधियाँ छूट जानेके कारण शरीर, इन्द्रिय और मनका सर्वथा अभाव हो जाता है और उससे जो अनिर्वचनीय सुख मुक्त आत्माओंको मिलता है, उस सुखके सामने तीन लोकका सुख भी बिन्दुमात्र है। बहुतसे यह शंका किया करते हैं कि मोक्षमें-जहाँ शरीर नहीं, स्त्री, मकान और बाग नहीं-सुख क्या हो सकता है ? मगर ऐसी शंका करनेवाले यह भूल जाते हैं कि शारीरिक सुखके साथ, दुःख भी लगा हुआ है मिष्टान्न खानेमें आनंद मिलता है, इसका कारण भखकी वेदना है । इस बातको हरेक जानता है कि पेट भर जाने पर अमृतके समान भोजन भी अच्छा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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