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________________ ३६० जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwww वैशालीमें जिनदत्त नामका एक सेठ था। उसकी सम्पत्ति चली जानेसे वह 'जीर्णसेठ । के नामसे प्रसिद्ध हो गया था। वह हमेशा महावीर स्वामीके दर्शन करने आता था। उसके मनमें यह अभिलाषा थी कि प्रभुको मैं अपने घरपर पारणा कराऊँगा और धन्यजीवन होऊँगा। ___चौमासा समाप्त हुआ। प्रभुने ध्यान तजा। जीर्णसेठने प्रभुको भक्ति सहित वंदनाकर विनती की:-" प्रभो! आज मेरे घर पारणा करने पधारिए । " फिर उसने घर जाकर निर्दोष आहारपानी तैयार करा प्रभुके आनेकी, दर्वाजेपर खड़े होकर प्रतीक्षा आरंभ की। साधु तो किसीका निमंत्रण ग्रहण नहीं करते । कारण, निमंत्रण ग्रहण करना मानो उद्दिष्ट-अपने लिए बनाया हुआआहार ग्रहण करना है । साधु कभी अपने लिए बनाया हुआ आहारपानी नहीं लेते । साधु-आचारके कठोर नियमपर चलनेवाले महावीर स्वामी भला कब जीर्ण सेठके घर जानेवाले थे ! समयपर प्रभु आहारके लिए निकले और फिरते हुए नवीन सेठके घर पहुँचे । सेठ धनांध था । वह किसीकी परवाह नहीं करता था। मगर उस समय किसी साधुको घरसे लौटा देना बहुत बुरा समझा जाता था इसलिए उसने अपनी दासीको कहा:-" इसको भीख देकर तत्काल ही यहाँसे विदा कर । " वह लकड़ेके बर्तनमें उड़दके उबाले हुए बाकळे ले आई। ऐषणीय-निर्दोष आहार समझकर प्रभुने उसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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