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________________ ९० जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) इनकी पेढ़ीपर आ जाता है तो ये उसकी बड़ी खातिर करते हैं. और अपने पुत्र संपतलालजीको या अपने, दूकानके, नौकरोंको भेज कर आगत सज्जनको शहरके सभी मंदिरोंके दरशन करवाते हैं और आसपास की यात्रा भी करवा देते हैं । | । इनके एक पुत्र संपतलालजी हैं । ये अपने योग्य पिताके आज्ञाकारी पुत्र हैं । दुनियामें इन्हें कोई अपना विरोधी मालम नहीं होता । जिससे ये एक बार मिलते हैं वही इनको अपना स्नेही और हितैषी समझने लग जाता है। इनकी जवानमें कटुता तो नाम मात्रको भी नहीं है । अपने पिताकी ईमान्दारी और धर्मपरायणता इनमें पूर्णरूप से आई है । संपतलालजीके तीन पुत्र हैं, - १ हस्तमल २ जेठमल ३ गुलाबचंद्र | श्रीयुत पद्मचंद्रजीने अपने कुटुंब के सहित प्रायः सभी यात्राएँ कीं हैं । ये धर्मकार्यमें सदा दिल खोल कर धन खरच किया करते हैं । जहाँ जाते हैं वहाँ स्वामिवत्सल, पूजा, प्रभावना किया करते हैं । पं. भगवानदासजी जैन इनके पिताका नाम कल्याणचंद्रजी था । ये पालीताने के रहनेवाले हैं और हाल जयपुरमें रहते हैं । श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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