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________________ ३२६ जैन - रत्न उपेक्षा करने लगे । उसका मान घट गया और उसे रोटी मिलना भी कठिन हो गया । यह देखकर अच्छेदकको बड़ा दुःख हुआ । वह प्रभुके पास आया और दीन वाणीमें बोला:- “ हे दयालु ! आपकी तो जहाँ जायँगे वहीं पूजा होगी; परंतु मेरे लिए तो इस गाँवको छोड़कर अन्यत्र कहीं स्थान नहीं है । इसलिए आप दया कर कहीं दूसरी जगह चले जाइए । " प्रभुने यह अभिग्रह ले ही रक्खा था कि, जहाँ अप्रीति उत्पन्न होगी- मेरे कारण किसीको दुःख होगा- वहाँ मैं नहीं रहूँगा । इसलिए वे तुरत वहाँसे उत्तर चावाल नामक गाँवकी तरफ विहार कर गये । चंडकौशिकका उद्धार महावीर स्वामी विहार करते हुए श्वेतांबी नगरीकी तरफ चले | रस्तेमें गवालोंके लड़के मिले । उन्होंने कहा: - " हे देवार्य ! यह रस्ता सीधा श्वेतांबी जाता है; परंतु रस्तेमें ' कनकखल' नामका तापसोंका आश्रम है । उसमें एक दृष्टिविष सर्प रहता है | उसके विषकी प्रबलता के कारण पशु पक्षी तक इस रस्तेसे नहीं जा सकते, मनुष्योंकी तो बात ही पाखंडी रहता था । वह मंत्र, तंत्रादिसे अपनी आजीविका चलाता था। उसके माहात्म्यको सिद्धार्थ व्यंतर सहन न कर सका इससे और वीर प्रभुकी पूजाकी अभिलाषा से सिद्धार्थने प्रभुके शरीर में प्रवेश किया । फिर एक जाते हुए गवालको बुलाया और कहा :- " आज तूने सौवीर ( एक तरह की कांजी) के साथ कंकूर ( एक तरहका धान्य ) का भोजन किया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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