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________________ ५१८ जैन-रत्न बितानेवाले और दूसरे मलिन जीवन बितानेवाले । ये दोनों प्रकारके मनुष्य भी दो भागोंमें विभक्त किये जा सकते हैं-धनी और दरिद्र । सब मिला कर मनुष्य चार प्रकारके कहे जा सकते हैं-( १) पवित्र जीवन बितानेवाले-धर्मात्मा-धनी (२) पवित्र जीवन बितानेवाले धर्मात्मा-गरीब (३) मलिन जीवन बितानेवाले-पापी-धनी और (४) अपवित्र जीवन बितानेवाले पापी-गरीब । इस तरह चार प्रकारके मनुष्योंको हम संसारमें देखते हैं। सामान्यतया सारा संसार जानता है कि, इस विचित्रताका कारण पाप-पुण्यकी विचित्रता है। यद्यपि इस विचित्रताको समझनेका क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण है, तथापि मोटे रूपसे इतना तो हम भली प्रकारसे समझ सकते हैं, कि चार प्रकारके मनुष्योंकी अपेक्षा पुण्य-पाप भी चार प्रकारके होने चाहिए। जैनशास्त्रकार पुण्य पापके चार भेदोंका वर्णन इस तरह करते हैं । (१) पुण्यानुबंधी पुण्य (२) पुण्यानुवंधी पाप (३) पापानुबंधी पुण्य और ( ४ ) पापानुबंधी पाप । पुण्यानुबंधी पुण्य । जन्मान्तरके निस पुण्यसे सुख भोगते हुए भी धर्मकी लालसा रहती है, जिससे पुण्यके कार्य हुआ करते हैं और जिससे पवित्रतासे जीवन बीतता रहता है, ऐसे पुण्यको ‘पुण्यानुबंधी पुण्य ' कहते हैं। इसको पुण्यानुबंधी पुण्य कहनेका कारण यह है कि यह इस जीवनको सुखी और पवित्र बनाता है और साथ ही जन्मान्तरके लिए भी पुण्यका संचय कर देता है । 'पुण्यानुबंधी पुण्य' का अर्थ हैपुण्यका साधन पुण्य । यानी जन्मान्तरके लिए भी जो पुण्यका संपादन कर देता है उसको पुण्यानुबंधी पुण्य कहते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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