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________________ जैन-दर्शन ५१९ पुण्यानुबंधी पाप । जन्मान्तरका जो पाप नीवको दुःख भोगाता है; मगर जीवनको मलिन नहीं बनाता; धर्मसाधनके व्यवसायमें बाधा नहीं डालता, वही पाप पुण्यानुबंधी पाप कहलाता है । यह पाप यद्यपि वर्तमान जीवनमें गरीबी आदि दुःख देता है। तथापि जीवको पापके कार्य नहीं डालता, इसलिए जन्मान्तरके लिए पुण्य उत्पन्न करनेका कारण बनता है। पुण्यानुबंधी पापका शब्दार्थ है-पुण्यके साथ संबंध जोड़नेवाला पाप । अर्थात् जन्मान्तरके लिए पुण्यसाधनमें बाधा नहीं डालनेवाला पाप । पापानुबंधी पुण्य । जन्मान्तरका जो पुण्य, सुख भोगाता हुआ पापवासनाओंको बढ़ाता रहता है; अधर्मके कार्य कराता रहता है, वह पुण्य पापानुबंधी पुण्य कहलाता है । यह पुण्य यद्यपि इस जीवनमें सुख देता है; तथापि आगामी जीवनके लिए वर्तमान जीवनको मलिन बना कर पापको संचित कर देता है । पापानुबंधी पुण्यका शब्दार्थ होता है-पापका साधन पुण्य । अर्थात् जो पुण्य जन्मान्तरके लिए पापसम्पादन कर देता है उसे पापानुबंधी पुण्य कहते हैं। पापानुबंधी पाप। जन्मान्तरका जो पाप गरीबी आदि दुःख भोगाता है, पाप करनेकी बुद्धि देता है और अधर्मके कार्य करवाता है, वह पापानुबंधी पाप कहलाता है । यह पाप इस जीवनमें तो दुःख देता ही है; परन्तु वर्तमान जीवनको भी मलिन बना कर भावी जीवनके लिए भी पापका संचय कर देता है । पापनुबंधी पापका शब्दार्थ होता है-पापका साधन पाप । अर्थात् जन्मान्तरके लिए पापका संपादन कर देनेवाला पाप । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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