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________________ '१३६ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) उनके शिष्य प्रशिष्योंको मिलता रहा था और आज भी यति रत्नचंद्रजीको मिल रहा है । उनके शिष्य ( ? ) उनके हरषचंद्रजी और उनके देवीचंद्रजी और देवीचंद्रजीके दो शिष्य थे । माणिकचंद्रजी और दुलीचंद्रजी । इस समय दुलीचंद्रजी और माणिकचंद्रजीके रतनचंद्रजी मौजूद हैं। यतिजी महाराज श्री अनूपचंद्रजी और उनके पूर्वज १ श्रीनगराजजी महाराज ये महात्मा बड़े ही निःस्वार्थ और धर्मपरायण पुरुष थे । ये लौकागच्छके थे । यतिर्योकी पद्धतिके अनुसार ये अपने पास धन रखते थे; परन्तु उस धनका इन्होंने कभी अपने सुख के लिए उपयोग नहीं किया । राजअंश लेनेकी इनको प्रतिज्ञा थी । ये उदयपुर के महाराणाजी श्री भीमसिंहजीके समयमें हुए हैं और मेवाड़के बनेड़ा गाँव में रहते थे । एक बार वे गवालियर गये थे । वहाँके राजाको सूजाककी www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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