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________________ जैन - रत्न तुम राजीमती - संयमधारिणी राजीमती - बोली:- " रथनेमि ! मुनि हो, तुम तीर्थकरके भाई हो, तुम उच्च वंशकी सन्तान हो, तुम्हारे मुखमें ऐसे वचन नहीं शोभते । ये वचन तो पतित, नीच और असंयमी लोगों के योग्य हैं, ये तो संयमकी विराधना करनेवाले हैं; ऐसे वचन उच्चारण करना और ऐसी घृणित लालसा रखना मानो अपने पशु स्वभावका प्रदर्शन कराना है । मुनि ! प्रभुके पास जाओ और प्रायश्चित्त लो । " २५८ रथनेमि मोहमुग्ध हो गये थे । उन्हें होश आया । वे अपने पतनपर पश्चात्ताप कर राजीमतीसे क्षमा माँग प्रभुके पास गये । वहाँ जाकर उन्होंने प्रभुके सामने अपने पापोंकी आलोचना कर प्रायश्चित्त लिया। फिर वे चिर काल तक तपस्या कर, केवलज्ञान पा मोक्षमें गये । अन्यदा प्रभु विहारकर द्वारिका आये । तब विनयी कृष्णने देशना के अंतमें पूछा:- " हे करुणानिधि ! कृपा करके बताइए कि, मेरा और द्वारकाका नाश कैसे होगा" ? भगवान बोले:" भावी प्रबल है । वह होकर ही रहता है। सौरीपुरके बाहर पाराशर नामक एक तपस्वी रहता है । एक बार वह यमुना द्वीप गया था । वहाँ उसने किसी नीच कन्यासे संबंध किया । उससे द्वीपायन नामका एक पुत्र हुआ है। वह पूर्ण संयमी और तपस्वी है । यादवोंके स्नेहके कारण वह द्वारकाके पास ही वनमें रहता है । शांब आदि यादव कुमार एक बार वनमें जायँगे और मदिरामें मत्त होकर उसे मार डालेंगे । बह मरकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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