SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ जैन - रत्न अर्चित होता है, यह समुद्र मंथन के बाद सुधाकुंभ - अमृत के कलशके समान और जलसे परिपूर्ण होता है । [१०] पद्म सरोवर - इसमें अनेक विकसित कमल होते भ्रमर उनपर गुंजार करते रहते हैं । [११] क्षीर समुद्र - यह पृथ्वीमें फैली हुई शरद ऋतुके मेघकी लीलाको चुरानेवाला और उत्ताल तरंगों के समूहसे चित्तको आनंद देनेवाला होता है । [१२] विमान - यह अत्यंत कान्तिवाला होता है । ऐसा जान पड़ता है कि, जब भगवानका जीव देवयोनिमें था तब वह उसीमें रहा था। इसलिए पूर्व स्नेहका स्मरण कर वह आया है । [१३] रत्नपुंज - यह ऐसा मालूम होता है कि, मानों किसी कारण से तारे एकत्र हो गये हैं; या निर्मल कांति एक जगह जमा हो गई है । [१४] निर्धूम अग्नि- इसमें धुआँ नहीं होता । यह ऐसा प्रकाशित मालूम होता है कि, तीन लोकमें जितने तेजस्वी पदार्थ वे सब एकीभूत हो गये हैं । x जब ये चौदाह स्वप्न आते हैं और तीर्थकर, देवलोक से च्यवकर माताके गर्भ में आते हैं तब इन्द्रोंके आसन काँपते हैं । इन्द्र उपयोग देकर देखते हैं । उनको मालूम होता है कि, भगवानका जीव अमुक स्थानमें गर्भमें गया है तब वे वहाँ जाते हैं और गर्भधारण करनेवाली माताको इन्द्र इस तरह स्वर्मो का फल सुनाते है: X दिगम्बर आम्नायमें ' दो मच्छ' और 'सिंहासन' ये दो स्वम अधिक हैं । तथा महाध्वजकी जगह 'नाग भुवन' है । और सब समान हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy