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जैन - रत्न
धशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । उस चक्रके साथ चार सौ वर्ष घूम कर भरतखण्ड के छः खण्ड़ों को विजय किया । प्रभु २१ हजार वर्ष तक चक्रवर्ती रहे ।
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फिर लोकान्तिक देवोंने विनती की, “हे प्रभु! भव्य जीवों के हितार्थ तीर्थ प्रवर्त्ताइए।" तब संवत्सरी दान दे, माघ सुदि ११ के दिन रेवती नक्षत्रमें छट्ट तप युक्त, सहसाम्रवनमें जाकर प्रभुने दीक्षा ली । दूसरे दिन राजनगरके राजा अपराजितके यहाँ पर पारणा किया । फिर वहाँसे बिहारकर तान बर्ष बाढ़ उसी उद्यानमें आये । आम्रवृक्षके नीचे कायोत्सर्ग ध्यान किया। कार्तिक सुदि १२ के दिन चन्द्र रेवती नक्षत्रमें था तब प्रभुको केवलज्ञान हुआ । इन्द्रादि देवोंने ज्ञानकल्याणक मनाया । प्रभुके संघमें पचास हजार साधु, साठ हजार साध्वियाँ ६९० चौदह पूर्वधारी, २६०० अवधिज्ञानी, २५५१ मन:पर्यय ज्ञानी, २८०० केवली, ७ हजार ३ सौ वैक्रियक लब्धिवाले, १ हजार छः सौ वादी, १ लाख ८४ हजार श्रावक, और ३ लाख ७२ हजार श्राविकाएँ तथा षडमुख नामक यक्ष, और धारणी नामकी शासन देवी थी ।
मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखरपर आये । और एक मासका अनशन धारण कर मार्गशीर्ष सुदि १० के दिन चन्द्र जब रेवती नक्षत्रमें था, १ हजार मुनियोंके साथ मोक्षमें गये । इन्द्रादि देवोंने मोक्षकल्याणक मनाया ।
इनकी सम्पूर्ण आयु ८४ हजार वर्षकी थी । शरीरकी ऊँचाई ३० धनुषकी थी । कुंथुनाथजी के बाद हजार करोड़ वर्ष कप पल्योपमका चौथा अंश बीतने पर अरःनाथजी मोक्षमें गये ।
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