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जैन-रत्न
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नहीं था । अतुल शरीर बल रखते हुए भी उनमें मद न था। अनुपम रूप रखते हुए भी उन्हें सौन्दर्यका अभिमान नहीं था। विपुल लाभ होते हुए भी उन्मत्तता उनके पास नहीं आती थी। अनेक प्रलोभन और मद-मात्सर्यको बढ़ानेवाली सामग्रियोंके होते हुए भी वे सबको उपेक्षाकी दृष्टिसे देखते थे। तृणतुल्य समझते थे । इस प्रकार राज्य करते हुए अजित स्वामीने तिरपन लाख पूर्वका समय व्यतीत किया। ___ एक दिन प्रभु अकेले बैठे हुए थे। अनेक प्रकारके विचार उनके अंतःकरणमें उठ रहे थे। अन्तमें वैराग्य भावनाकी लहर उठी। उस भावनाने उनके अन्यान्य समस्त विचारोंको बहा दिया । हृदयके ही नहीं, समस्त शरीरके शिरा प्रशिरामेंरंगरग और रेशे रेशेमें वैराग्य-भावनाने अधिकार कर लिया। संसारसे उनका चित्त उदास हो गया।
जिस समय अजित स्वामीका चित्त निर्वेद हो गया था उस समय सारस्वतादि लोकांतिक देवताओंने आकर विनती की "हे भगवन् ! आप स्वयंबुद्ध हैं । इसलिए हम आपको किसी तरहका उपदेश देनेकी धृष्टता तो नहीं करते परंतु प्रार्थना करते हैं कि, आप धर्मतीर्थ चलाइए।"
देवता चरणवंदना कर चले गये । अजित स्वामीने मनो. नुकूल अनुरोध देख, भोगावली कर्मोंका क्षय समझ, तत्काल ही सगर कुमारको बुलाया और कहा:--" बंधु ! मेरे भोगकर्म समाप्त हो चुके हैं। अब मैं संसारसे तैरनेका कार्य करूँगा-दीक्षा लँगा। तुम इस राज्यको ग्रहण करो।"
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