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________________ ४४० जैन - रत्न शोक-मग्न हो गये और सोचने लगे, -रातहीमें प्रभु निर्वाण प्राप्त करनेवाले थे, तो भी मुझे उन्होनें दूर भेज दिया । हाय दुर्भाग्य ! जीवनभर सेवा करके भी अंत में उनकी सेवासे वंचित रह गया । वे धन्य हैं जो अंत समयमें उनकी सेवामें थे; वे भाग्यशाली हैं जो अंतिम क्षणतक प्रभुके मुखारविंद से उपदेशामृत सुनते रहे । हे हृदय ! प्रभुके वियोग- समाचार सुनकर भी तू ट्रक ट्रक क्यों नहीं हो जाता ? तू कैसा कठोर है कि इस वज्रपातके होनेपर भी अटल है ? 1 I वे फिर सोचने लगे, - प्रभुने कितनी बार उपदेश दिया कि मोह-माया जगत्के बंधन हैं; परंतु मैंने उस उपदेशका पालन नहीं किया । वे वीतराग थे, मोह-ममता से मुक्त थे | उनके साथ स्नेह कैसा ? मैं कैसा भ्रांत हो रहा था । उपकारी प्रभुने मेरी भ्रांति मिटानेही के लिए मुझे दूर भेज दिया था । धन्य प्रभो ! आप धन्य हैं ! जो आपके सरल उपदेशसे निर्मोही न बना उसे आपने त्यागकर निर्मोही बनाया | सत्य है, आत्मा-नित आत्मा- किससे मोहमाया रखेगा ? गौतम सावधान हो, प्रभुके पद चिन्होंपर चल, अपने स्वरूपको पहचान | अगर प्रभुके पास सदा रहना हो तो निर्मोही बन और आत्मस्वरूपमें लीन हो । गौतमस्वामी को इसी तरह विचार करते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुआ । फिर उन्होंने बारह बरसतक धर्मोपदेश दिया । अंतमें वे राजगृह नगर में आये और भवोपग्राही कमको नाश कर मोक्षमें गये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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