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________________ १३४ जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध ) उदयचंद्रजी बड़े संकटमें पड़े। कैसे कहें कि निराश न करूँगा । जान बिना किसी बातकी हामी कैसे भरते । कुछ देर सोचकर बोल:-" अगर मुझसे होने जैसा और निर्दोष काम होगा तो मैं आपको निराश न करूँगा।" ____ शेरसिंहजीन चोरीकी बात कही। महाराज बड़े धर्मसंकटमें पड़े । थोड़ी देर विचारमें बैठे रहे। फिर बोले:-" मैं तुम्हारी चोरीका पता लगा दूँगा। तुम्हारा माल कहाँ है सो भी बता दूंगा; परन्तु तुमको यह प्रतिज्ञा करनी पड़ेगी कि तुम चोरको दुःख न दोगे।" शेरसिंहजी बोले:-" अगर चोरको सना न दी जायगी तो भविष्यमें वह और भी चोरी करेगा।" महाराज-मैं ज्यादा बातें नहीं जानता। अगर तुम चोरको दुःख न देनेकी प्रतिज्ञा करो तो मैं पता बता दूं । अन्यथा तुम अपने घर जाओ और मुझे प्रभुका भजन करने दो। शेरसिंहजीने महाराजकी शर्त स्वीकार की तब उन्होंने बताया,--- ___“ तुम्हारे यहाँ जो भंगिन झाड़ने आती है उसके घर चूल्हे पर एक आलिया (ताक) है । उसमें एक कुलडेके अंदर तुम्हारी नथ पडी है । ऊपर मिट्टीका सकोरा ढका हुआ है।" उसी समय आदमी दौड़ाये गये । वे भंगिनके घर जाकर महारानने जो जगह बताई थी वहाँसे नथ उठा लाये। सारे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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