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________________ ३८० जैन-रत्न जीव शरीरसे भिन्न कैसे हो सकता है ? जैसे पानीसे बुद्धदा उठता है और वह पानीहीमें लीन हो जाता है वैसे ही जीव भी शरीरहीसे पैदा होता है और उसीमें लीन हो जाता है । मगर तुम्हारी धारणा मिथ्या है । कारण,__ यह जीव देशसे प्रत्यक्ष है । इच्छा वगैरा गुण प्रत्यक्ष होनेसे जीव स्वसंविद् है; यानी उसका खुदको अनुभव होता है । जीव देह और इन्द्रियसे भिन्न है । जब इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं तब वह इन्द्रियोंको स्मरण करता है और शरीरको छोड़ देता है। वायुभूतिका संदेह जाता रहा और उसने भी अपने ५०० शिष्यों के साथ दीक्षा लेली। __ व्यक्तने जब ये समाचार सुने तो वे भी महावीरके पास गये । महावीर बोले:--" हे व्यक्त, तुम्हारे दिलमें यह शंका है कि, पृथ्वी आदि पंचभूत हैं ही नहीं । वे हैं ऐसा जो भास होता है वह जलमें चंद्रमा होनेका भास होनेके समान है । यह जगत शून्य है । वेदवाक्य है कि 'इत्येश ब्रह्मविधिरञ्जसाविज्ञेयः' अर्थात यह सारा जगत स्वपके समान है । और इस वाक्यका तुमने यह अर्थ कर १-ये कोल्लाक गाँवके रहनेवाले थे। इनके पिताका नाम धनुर्मित्र और माताका नाम वारुणी था । इनका गोत्र भारद्वाज था । इनकी आयु ८० बरसकी थी । ये ५० वरस तक गृहस्थ, १२ बरस तक छद्मस्थ साधु और १८ बरस तक केवली रहे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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