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________________ ५०६ ~~~~ ~~~~~~ जैन-रत्न या उपशम होते हुए, सूक्ष्म लोभांश ही शेष रह जाता है, तब यह गुणस्थान प्राप्त होता है। उपशान्तमोह-पूर्वगुणस्थानों में जिसने मोहका उपशम करना प्रारंभ किया होता है, वह जब पूर्णतया मोहको दाब देता है-मोहका उपशम कर देता है तब उसको यह गुणस्थान प्राप्त होता है । क्षीणमोह-पूर्व गुणस्थानोंमें जिसने मोहनीय कर्मका क्षय करना प्रारंभ किया होता है, वह जब पूर्णतया मोहको क्षीण कर देता है, तब उसको यह गुणस्थान प्राप्त होता है। ___ यहाँ उपशम और क्षयके भेदको भी समझा देना आवश्यक है । मोहका सर्वथा उपशम हो गया होता है तो भी वह पुनः प्रादुर्भूत हुए विना नहीं रहता है । जैसे किसी पानीके बर्तनमें मिट्टी होती है, मगर वह नीचे जम जाती है, तो उसका पानी स्वच्छ दिखाई देता है; परन्तु उस पानीमें किसी प्रकारकी हलन चलन होते ही, मिट्टी ऊपर उठ आती है और पानी गॅदला हो जाता है । इसी तरह जब मोहके रजकण-मोहका पुंज-आत्मप्रदेशोंमें स्थिर हो जाते हैं, तब आत्मप्रदेश स्वच्छसे दिखाई देते हैं। परन्तु वे उपशान्त मोहके रनकण किसी कारणको पाकर फिरसे उदयमें आ जाते हैं; और उनके उदयमें आनेसे जिस तरह आत्मा गुणश्रेणियोंमें चढ़ा होता है उसी तरह वापिस गिरता है। इससे स्पष्ट है कि केवलज्ञान मोहके सर्वथा क्षय होनेहीसे प्राप्त होता है; क्योंकि मोहके क्षय हो जाने पर पुनः वह प्रादुर्भूत नहीं होता है। 'सयोगकेवली-केवलज्ञानके होते ही यह गुणस्थान प्रारंभ होता है । इस गुणस्थानके नाममें जो · सयोग ' शब्द रक्खा गया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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