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________________ २४८ जैन-रत्न रहूँगा। मैं इस चक्करमें घुमानेवाले कर्मोंका नाश करनेके लिए संयमशस्त्र ग्रहण करूँगा और उनसे निश्चित होकर शिवरमणीके साथ शादी करूँगा।" मातापितादिने समझ लिया,-अब नेमिनाथ न रहेंगे। इनको रोक रखना व्यर्थ है । सबने रथको रस्ता दे दिया। नेमिनाथ सौरिपुर पहुँचे । उसी समय लोकांतिक देवोंने आकर प्रार्थना की,-" प्रभो! तीर्थ प्रवर्ताइए । " नेमिनाथ तो पहिले ही तैयार थे। उन्होंने वार्षिक दान देना आरंभ कर दिया। ___ इस तरफ जब राजीमतीको यह खबर मिली कि नेमिनाथजी शादी करनेसे मुखमोड़, संसारसे उदास हो, दीक्षा लेनेके इरादेसे सौरीपुर लौट गये हैं तो उसके हृदयपर बड़ा आघात लगा । वह मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़ी । जब शीतोपचार करके वह होशमें लाई गई तो करुण आक्रंदन करने लगी। सखियाँ उसे समझाने लगी,-" बहिन ! व्यर्थ क्यों रोती हो ? स्नेह-हीन और निदेय पुरुषके लिए रोना तो बहुत बड़ी भूल है। तुम्हारा उसका संबंध ही क्या है ? न उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा है, न सप्तपदी पढ़ी है और न तुम्हारे घर आकर उसने तोरण ही बाँधा है । वह तुम्हारा कौन है जिसके लिए ऐसा विलाप करती हो ? शांत हो । तुम्हारे लिए सैकड़ों राजकुमार मिल जायँगे!" राजीमती बोली:--" सखियो! यह क्या कह रही हो कि वे मेरे कौन हैं ? वे मेरे देवता हैं, वे मेरे जीवनधन हैं, वे मेरे इस लोक और परलोकके साधक हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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