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________________ जैन-रत्न करते हैं । सौधर्मेन्द्र उन केशोंको अपने पल्लोमें ग्रहणकर क्षीर-समुद्रमें डाल आता है। तीर्थकर फिर सावद्ययोगका त्याग करते हैं। उसी समय उन्हें 'मनःपर्यवज्ञान' उत्पन्न होता है । इन्द्रादि देवता प्रभुसे विनती करते हैं और अपने अपने स्थानपर चले जाते हैं । तीर्थकर बिहार करने लगते हैं। ४-केवलज्ञान-कल्याणक । सकल संसारकी; समस्त चराचरकी बात जिस ज्ञानद्वारा मालूम होती है उसे केवलज्ञान कहते हैं। जिस दिन यह ज्ञान उत्पन्न होता हैं, उसी दिनसे, तीर्थकर नामकर्मका उदय होता है । जब यह ज्ञान उत्पन्न होता है तब इन्द्रादि देव आकर उत्सव करते हैं । और प्रभुकी धर्मदेशना सुनने के लिए समवसरणकी रचना करते हैं। इसकी रचना देवता मिलकर करते हैं। यह एक योजनके विस्तारमें रचा जाता है । वायुकुमार देवता भूमि साफ़ करते हैं । मेघकुमार देवता सुगंधित जल बरसाकर छिड़काव लगाते हैं। व्यंतर देव स्वर्ण-मणिका और रत्नोंसे फर्श बनाते हैं। पचरंगी फूल विछाते हैं, और रत्न, मणिका और मोतीयोंके चारों तरफ तोरण बाँध देते हैं । रत्नादिककी पुतलियाँ बनाई जाती हैं, जो किनारोंपर बड़ी सुन्दरतासे सजाई जाती हैं। उनके शरीरके प्रतिबिंब परस्परमें पड़ते हैं इससे ऐसा मालूम होता है कि, वे एक दूसरीका आलिंगन कर रही हैं। स्निग्ध नीलमणियोंके घड़ेहुए मगरके चित्र, नष्ट, कामदेव-परित्यक्त निज चिन्हरूप मगरकी भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं । श्वेत छत्र ऐसे सुशोभित होते १-इस ज्ञानके होनेसे पंच-इन्द्रिय जीवोंके मनकी बात मालूम होती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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