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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध)
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अमेरिकन स्त्री पुरुषोंको इनकी यह बात बहुत पसंद आई । इनके लिए उनके हृदयमें मान और भी अधिक हो गया ।
न्यूयार्कमें एक दिन बुद्ध जयंतीका उत्सव और भोज था। वहाँ जापान अमेरिका और हिंदुस्तान आदि समस्त संसारके हजारों स्त्रीपुरुष जमा थे। इन दम्पतिको भी लोग बड़े आदरके साथ उसमें ले गये । जापानी काउन्सिल (एलची) ने कहा:-" ये माता उस देशकी है जिस देशकी माताने भगवान बुद्धको जन्म दिया था। इसलिये ये हमारे लिए वंदनीय हैं।" लोगोंने इन्हें प्रणाम किया । फिर देवीसे कहा गया कि, आप कुछ बोलिए । देवी बोली:-"मैं इंग्लिश नहीं जानती।" लोग कहने लगे:-" आप चाहे किसी भाषामें बोलिए हम आपके मुखसे कुछ सुनना चाहते हैं।" देवी बड़ी संकटमें पड़ी । सोगानीनीने इन्हें साहस दिलाया और कहाः-"रत्नकरंडका, नमस्कारका, श्लोक ही बोल जाओ।" देवीने ' नमोस्तुवर्द्धमानाय-' वाला श्लोक इस तरह पढाः
नमोस्तु जिनबुद्धाय, स्पर्द्धमानाय कर्मणा।
सालोकानां त्रिलोकानां, यद्विद्या दर्पणायते ॥ लोग बड़े प्रसन्न हुए। एक बंगाली विद्वानने इसका विवेचन किया। लोग बड़े हर्षित हुए । उसमें चीन जापान, पर्शिया और इजिप्टके एलची और शहरकी अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियाँ थीं।
जब अमेरिकामें पहुंचे ही थे तबकी बात है । इनके पासके सब रुपये खर्च हो चुके थे । इनके पास पैसा कुछ न रहा सिर्फ पचास सेंट थे । इसलिए तीन दिन तक केवल आठ सेंटकी डबल रोटी पर
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