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जैन-रत्न
मण्डन करते हुए, यदि वे एक दूसरेका खण्डन करने लगे तो तिरस्कारके पात्र हैं। इस तरह घटको अनित्य और नित्य बतानेवाले सिद्धान्त, तथा आत्मा और शरीरका भेद और अभेद बतानेवाले सिद्धान्त, यदि एक दूसरेपर आक्षेप करनेको उतारु हों, तो वे
अमान्य ठहरते हैं। ___ यह समझ रखना चाहिए कि नय आंशिक सत्य है। आंशिक सत्य सम्पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता है । आत्माको अनित्य या घटको नित्य मानना सर्वाशमें सत्य नहीं हो सकता है । जो सत्य जितने अंशोंमें हो उसको उतने ही अंशोंमें मानना युक्त है। __ इसकी गिनती नहीं हो सकती है कि वस्तुतः नय कितने हैं। अभिप्राय या वचनप्रयोग जब गणनासे बाहिर हैं तब नय जो उनसे जुदा नहीं है-कैसे गणनाके अंदर हो सकते हैं। यानी नयोंकी भी गिनती नहीं हो सकती है। ऐसा होने पर भी नयोंके मुख्यतया दो भेद बताये गये हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । मूल पदार्थको 'द्रव्य' कहते हैं। जैसे-घड़ेकी मिट्टी । मूल द्रव्यके परिणामको
पर्याय' कहते हैं। मिट्टी अथवा अन्य किसी द्रव्यमें जो परिवर्तन होता है वह सब पर्याय है। द्रव्यार्थिक का मतलब है, मूल पदार्थों पर लक्ष्य देनेवाला अभिप्राय; और 'पर्यायार्थिक नय' का मतलब है पर्यायोंको लक्ष्य करनेवाला अभिप्राय । द्रव्यार्थिक नय सब पदाऑको नित्य मानता है। जैसे-घड़ा मूलद्रव्य-मृत्तिका रूपसे नित्य ह । पर्यायार्थिकनय सब पदार्थों को अनित्य मानता है । जैसे-स्वर्णका १" जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया।"
--' सम्मतिसूत्र' 'सिद्धसेनदिवाकर'
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