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________________ ४०८ जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm~~~~~~~~~ जवाब दिया था कि सर्वार्थसिद्धि विमानमें जायँगे । कारण, उस समय उनके भाव अति निर्मल थे।" इस तरह अभी भगवानका कथन चल ही रहा था कि आकाशमें दुंदुभिनाद सुनाई दिया । श्रेणिकने पूछा:-" प्रभो ! यह दुंदुभिनाद कैसा है ?" प्रभु बोले:-" राजन् ! प्रसन्नचंद्र मुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है । उनका ध्यान निर्मलतम हुआ । वे शुक्ल ध्यानपर आरूढ हुए । उनके मोहिनी कर्मका और उसके साथ ही ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अन्तराय कर्मका भी क्षय हो गया । इनके क्षय होते ही उनको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई है।" शुभ या अशुभ ध्यान ही प्राणियोंको सुखमें या दुःखमें डालते हैं। राजा श्रेणिकने पूछा:-"भगवन् ! केवलज्ञानका उच्छेद कब होगा? उस समय विद्युन्माली नामक केवलज्ञानका उच्छेद ब्रह्मलोकके इन्द्रका सामानिक देवता अपनी चार देवियोंके साथ प्रभुको वंदना करने आया हुआ था। उसे बताकर प्रभुने कहा:-"इस पुरुषसे केवलज्ञानका उच्छेद होगा । यानी इस भरतक्षेत्रमें इस अवसर्पिणी कालमें यह पुरुष अन्तिम केवली होगा।" श्रेणिकने पृच्छा:-"क्या देवताओंको भी केवलज्ञान होता है ?" __ प्रभुने उत्तर दिया:-"नहीं यह देव सात दिनके बाद च्यवकर राजगृहीके श्रेष्ठी ऋषभदत्तका पुत्र होगा । वैराग्य पाकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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