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________________ जैन - रत्न संवर जो शुभ आत्मपरिणाम भनोयोग, वचनयोग और शरीरयोगरूप आश्रवसे बँधनेवाले कर्मोंको रोकता है वह ' संवर ' कहलाता है । " संवर " शब्द 'सम' उपसर्ग लगकर 'वृ' धातुसे बना ।' सम् ' पूर्वक 'वृ' धातुका अर्थ ' रोकना ' होता है । जितने अंशों में कर्म नहीं बँधते हैं, उतने ही अंशों में 'संवर' समझना चाहिए । आत्मा के जिन उज्ज्वल परिणामोंसे कर्म बँधते रुकता है, वे परिणाम 'संवर' कहलाते हैं । एक समय ऐसा भी आता है, जब कर्ममात्रका बँधना बंद हो जाता है । ऐसी स्थिति केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद आती है । ऐसी स्थिति प्राप्त होने के पहिले, जैसे जैसे आत्मोन्नति होती जाती है, वैसे ही वैसे बंधन में भी कमी होती जाती है । ४७४ बंध कर्मका आत्मा के साथ दूध और पानीकी तरह मेल हो जानेका नाम 'बंध' है । कर्म कहीं से नये नहीं लाने पड़ते । इस प्रकार के परमाणु सारे लोक में हँस हँसकर भरे हुए हैं । उनका नाम जैनशास्त्रकारोंने 'कर्मवर्गणा' रखा है । ये परमाणु राग-द्वेष रूपी चिकनाईके कारण आत्मा के साथ बँधते हैं । यहाँ शंका हो सकती है कि, - शुद्धात्माको राग-द्वेषरूपी चिकनाई कैसे लग सकती है ? इसका समाधान करने के लिए जरा सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करना पड़ेगा । यह तो कहा नहीं जा सकता है कि, आत्मा के साथ रागद्वेषरूपी चिकनापन अमुक समयमें लग गया है I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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