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जैन- दर्शन
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इस तरह भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से 'सत्' को 'असत् ' कहने में विचारशील विद्वानोंको कोई बाधा दिखाई नहीं देगी । 'सत्' को भी ' सत् 'वनेका जो निषेध किया जाता है, वह ऊपर कहे अनुसार अपने में नहीं रही हुई विशेष धर्मकी सत्ता की अपेक्षासे । जिसमें लेखनशक्ति या वक्तृत्वशक्ति नहीं है, वह कहता है कि - " मैं लेखक नहीं हूँ।” या “मैं वक्ता नहीं हूँ ।" इन शब्दप्रयोगों में 'मैं' और साथ ही 'नहीं' का उच्चारण किया गया है वह ठीक है । कारण, हरेक समझ सकता है कि यद्यपि 'मैं' स्वयं 'सत्' हूँ, तथापि मुझमें लेखन या वक्तृत्वशक्ति नहीं है । इसलिए उस शक्तिरूपसे “मैं नहीं हूँ" । इस तरह अनुसंधान करनेसे सर्वत्र एक ही व्यक्तिमें ' सत्' और 'असत् ' का स्याद्वाद बराबर समझमें आ जाता है।
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स्याद्वाद के सिद्धान्तको हम और भी थोड़ा स्पष्ट करेंगे
सारे पैदार्थ उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, ऐसे तीन धर्मवाले हैं । उदाहरणार्थ - एक स्वर्णकी कंठी लो । उसको तोड़कर हार बना डाला । इस बातको हरेक समझ सकता है कि कंठी नष्ट हुई और हार उत्पन्न हुआ । मगर यह नहीं कहा जा सकता है कि, कंठी सर्वथा नष्ट ही हो गई है और हार बिलकुल ही नवीन उत्पन्न हुआ है । हारका बिलकुल ही नवीन उत्पन्न होना तो उस समय माना जा सकता है, जब कि उसमें कंठीकी कोई चीज आई ही न हो । मगर जब कि कंठीका सारा स्वर्ण हारमें आ गया है; कंठीका आकार - मात्र ही बदला है; तब यह नहीं कहा जा सकता है कि हार बिलकुल नया उत्पन्न हुआ है । इसी तरह यह मानना होगा कि कंठी भी
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उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तं सत् । " तत्त्वार्थसूत्र, 'उमास्वाति' वाचक |
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