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________________ ५४४ जैन-रत्न सर्वथा नष्ट नहीं हुई है । कंठीका सर्वथा नष्ट होना तभी माना जा सकता है जब कि कंठीकी कोई चीज बाकी न बची हो । परन्तु जब कंठीका सारा स्वर्ण ही हारमें आ गया है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि कंठी सर्वथा नष्ट हो गई है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि,-कंठीका नाश उसके आकारका नाश मात्र है और हारकी उत्पत्ति उसके आकारकी उत्पत्ति मात्र है । कंठी और हारका स्वर्ण एक ही है । कंठी और हार एक ही स्वर्णके आकार-भेदके सिवा दूसरा कुछ नहीं है। __इस उदाहरणसे यह भली प्रकार समझमें आ गया कि कंठीको तोड़ कर हार बनानेमें-कंठीके आकारका नाश, हारके आकारकी उत्पत्ति और स्वर्णकी स्थिति इस प्रकार उत्पाद, नाश और ध्रौव्य, (स्थिति) तीनों धर्म बराबर हैं। इसी तरह घड़ेको फोड़कर कँडा बनाये हुए उदाहरणको भी समझ लेना चाहिए । घर जब गिर जाता है तब जिन पदार्थोंसे घर बना होता है वे चीजें कभी सर्वथा विलीन नहीं होती हैं। वे सब चीजें स्थूल रूपसे अथवा अन्ततः परमाणु रूपसे तो अवश्यमेव जगत्में रहती ही हैं। अतः तत्त्वदृष्टि से यह कहना अघटित है कि घट सर्वथा नष्ट हो गया है । जब कोई स्थूल वस्तु नष्ट हो जाती है तब उसके परमाणु दूसरी वस्तुके साथ मिलकर नवीन परिवर्तन खड़ा करते हैं । संसारके पदार्थ संसारहीमें, इधर उधर, विचरण करते हैं; जिससे नवीन नवीन रूपोंका प्रादुर्भाव होता है। दीपक बुझ गया, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वह सवथा नष्ट हो गया है । दीपकका परमाणु-समूह वैसाका वैसा ही मौजूद है । जिस परमाणु-संघातसे दीपक उत्पन्न हुआ था, वही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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