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________________ પર जैन-रत्न वज्रनाभने तो बीसों स्थानकोंका आराधन किया था । खड़की धाराके समान प्रव्रज्याका-चारित्रका-चौदह लाख पूर्व तक अतिचार रहित उन्होंने पालन किया और अन्तमें दोनों प्रकारकी संलेखना पूर्वक पादपोपगमन अनशन-व्रत स्वीकार कर देह त्यागा। बारहवाँ भव-मरकर अनुत्तर विमानमें तेतीस सागरोपमकी आयुवाले देवता हुए। तेरहवाँ भव-आदिनाथ नामरूप । पूर्वज। जब मनुष्यका अधःपात होने लगता है तब वह परमुखापेक्षी हो जाता है। हम तीर्थकर चरित-भमिकामें यह बता चके हैं कि, तीसरे आरेके अन्तमें कल्प वृक्षोंका दान कम हो जाता है। युगलियों में भी कषायोंका थोड़ा उदय हो जाता है। उनके कारण वे कुछ अयोग्य कार्य भी करने लग जाते हैं। उस अयोग्य कार्यको रोकनेके लिए किसी सशक्त मनुष्यकी आवश्यकता होती है । युगलिये अपने से किसी एक मनुष्यको चुन लेते हैं । वह पुरुष कुलकर कहलाता है । वही युगलियोंको बुरे कामोंसे रोकनेके लिए दंड भी नियत करता है । तीसरे आरेके अन्तमें एक युगलियोंका जोड़ा उत्पन्न हुआ। पुरुषका नाम सागरचन्द्र था और स्त्रीका प्रियदर्शना । उनका शरीर नौ सौ धनुषका था। उनकी आयु पल्योपमकी थी। उनका संहनन 'वज ऋषभनाराच' और संस्थान 'समचतुरस्र'था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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