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________________ जैन-दर्शन ५६९ भावार्थ-" जिनके, संसारके कारणभूत कर्मरूपी अंकुरोंको उत्पन्न करनेवाले राग-द्वेषादि समग्र दोष क्षीण हो चुके हैं, उनको, वे चाहे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, शंकर हों या जिन हों मैं नमस्कार करता हूँ।" ___" मोक्ष न दिगम्बरावस्थामें है, न श्वेताम्बरावस्थामें है, न तर्कजालमें है, न तत्त्ववादमें है और न स्वपक्षका समर्थन करनेहीमें है । वस्तुतः मोक्ष कषायोंसे ( क्रोध, मान, माया और लोभसे ) मुक्त होनेमें है।" ___" परमात्मा महावीरके प्रति न मेरा पक्षपात है और न महर्षि कपिल, और महात्मा बुद्ध आदिहीके प्रति मेरा द्वेष है । मैं तो मध्यस्थबुद्धिसे, निदोष परीक्षाद्वारा जिनका वचन युक्त हो उन्हींका शासन स्वीकारनेके लिए तैयार हूँ।" उपसंहार। सन्स जैनदर्शनकी उदारताका थोडासा विवेचन किया गया । इससे पाठक समझ गये होंगे कि जैनदर्शनका क्षेत्र संकुचित नहीं है। वह बहुत ही विस्तृत है । यद्यपि हमारे संकुचित वक्तव्यक्षेत्रमैतमाम तत्त्वोंका समास न हो सका है तथापि जीव, अनीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन नौ तत्त्वोंका; जीवास्तिकाय धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल इन छः द्रव्योंका; सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारि, त्ररूप मोक्षमार्गका; गुणस्थान, अध्यात्म, जैन-आचार, न्यायशैली, स्याद्वाद, सप्तभंगी और नयका-इतनी बातोंका दिग्दर्शन कराया गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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