________________
७४
जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm परन्तु प्रभुको तो उनमेंसे एककी भी आवश्यकता नहीं थी। मिक्षा न मिलनेपर भी किसी तरह मनःक्लेश बिना जंगम तीर्थकी भाँति प्रभु विचरण करते थे और क्षुधापिपासादि भूख प्यास वगैरा परिसहोंको सहते थे । अन्यान्य साधु भी प्रभुके साथ साथ विहार करते रहते थे।
क्षुधा आदिसे पीडित और तत्वज्ञानसे अजान साधु विचार करने लगे कि भगवान न जंगलमें पके हुए मधुर फल खाते हैं और न निर्मल झरणोंका जल ही पीते हैं। सुंदर शरीरपर इतनी धूल जम गई है तो भी उसे हटानेका प्रयास नहीं करते। धूप और सरदीको झेलते हैं; भूख प्यासकी वाधा सहते हैं; रातको कभी सोते भी नहीं हैं। हम रात दिन इनके साथ रहते हैं। परंतु कभी दृष्टि उठाकर हमारी तरफ देखते भी नहीं हैं । न जाने इन्होंने क्या सोचा है? कुछ भी समझमें नहीं आता । हम इनकी तरह कबतक ऐसे दुःख झेल सकते हैं ? और दुःख तो झेले भी जा सकते हैं, परंतु क्षुधातृषाके दुःख झेलना असंभव है । इस तरह विचारकर सभी गंगा तटके नजदीकवाले वनमें गये और कंद,मूल, फलादिका आहार करने लगे और गंगाका जल पीने लगे । तभीसे जटाधारी तापसोंकी प्रवृत्ति हुई।
कच्छ और महाकच्छके नमि और विनमि नामक पुत्र थे। वे प्रभुने दीक्षा ली थी तब कहीं प्रभुकी आज्ञासे गये हुए थे। वे जब लौटकर आए तब उन्हें ज्ञात हुआ कि, प्रभुने दीक्षा ले ली है। वे प्रभुके पास गये और उनकी सेवा करने लगे तथा उनसे प्रार्थना करने लगे कि, हे प्रभो ! हमको राज्य दीजिए।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com