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________________ २७८ जैन-रत्न पड़ावपर इन्द्रका सारथी रथ लेकर आया और उसने हाथ जोड़कर विनती की :- " स्वामिन् ! यद्यपि आप सब तरहसे समर्थ हैं, किसीकी सहायताकी आपको जरूरत नहीं है, तथापि अपनी भक्ति बतानेका मौका देखकर महाराज इन्द्रने अपना संग्राम करनेका रथ आपकी सेवामें भेजा है और मुझे सारथी बननेकी आज्ञा दी है। आप यह सेवा स्वीकार कर हमें उपकृत कीजिए।" पार्श्वकुमारने इन्द्रकी यह सेवा स्वीकार की । उसी रथमें बैठकर वे आकाशमार्ग से कुशस्थलको गये । उनकी सेना भी उनके साथ ही पहुँची। देवताओंने पार्श्वकुमारकी छावनी में इनके रहने के लिए एक सात मंजिलका महल तैयार कर दिया । पार्श्वकुमारने अपना एक दूत राजा यवनके पास भेजा । उसने जाकर कहा:-“ अश्वसेन के युवराज पार्श्वकुमारकी आज्ञा कि, हे कलिंगाधिपति यवन ! तुम तत्काल ही अपने देशको लौट जाओ अगर ऐसा नहीं करोगे तो मेरी सेना तुम्हारा संहार करेगी इसका उत्तरदायित्व हमारे सिर न रहेगा । " 1 राजा यवन क्रुद्ध होकर वोला :- "हे दूत ! अपने राजकुमार को जाकर कहना कि, अपनी सुकुमार वयमें अपनेको मौतके मुँहमें न डाले | कलिंगकी सेना के साथ लड़ाई करना अपनी मौतको बुलाना है । अगर अपनी जान प्यारी हो तो कल शाम के पहलेतक यहाँसे लौट जाय वरना परसों सवेरे ही कलिंगकी सेना तुम्हारा नाश कर देगी १ " दूत बोला:-- “ महाराज कलिंग ! मुझे आपपर दया आती है । जिन पार्श्वकुमारकी इन्द्रादि देव सेवा करते हैं. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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