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________________ १०४ जैन रत्न जितशत्रु राजाको और उनके भाई सुमित्रको वैराग्य हो आया । उन्होंने अपने पुत्रोंसे, जिनकी आयुके अठारह लाख पूर्व समाप्त हो गये थे, कहा:-" पुत्रो! हम अब मोक्ष साधन करना चाहते हैं । धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ हम भली प्रकार साध चुके । इस लिए तुम यह राज्य-भार ग्रहण करो। अजित राजा बने आर सगर युवराज होकर रहे । हमें दीक्षा स्वीकार करनेकी अनुमति दो।" अजितनाथ बोले:-" हे पिताजी ! आपकी इच्छा शुभ है । अगर भोगावली कर्मका विघ्न बीचमें न आता तो मैं भी आपके साथ ही संयम ग्रहण कर लेता । पिताके मोक्ष-पुरुषार्थ साधनमें अगर पुत्र बाधक बने तो वह पुत्र, पुत्र नहीं है । मगर मेरी इतनी प्रार्थना है कि, आप मेरे चाचाजीको यह भार सौंपिए । मेरे सिर यह भार न रखिए ।" ___ सुमित्र बोले:-"मैं संयम ग्रहण करनेके शुभ कामको नहीं छोड़ सकता । राज्य-भार मेरे लिए असह्य है ।" ___ अजितकुमार:-" यदि आप राज्य ग्रहण नहीं करना चाहते हैं तो घरहीमें भावयति होकर रहिए । इससे हमें सुख होगा।" __राजा बोला:-" हे बंधु ! तुम आग्रह करनेवाले अपने पुत्रकी बात मानो । जो भावसे यति-साधु होता है वह भी यति ही कहलाता है । और तुम्हारा यह बड़ा पुत्र तीर्थकर है, इसके तीर्थमें तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी । दूसरा पुत्र चक्रवर्ती है। इन्हें धर्मानुकूल शासन करते देखकर तुम्हें अत्यंत प्रसन्नता होगी" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034871
Book TitleJain Ratna Khand 01 ya Choubis Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranth Bhandar
Publication Year1935
Total Pages898
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size96 MB
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